गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

पर्वत की टीस



सहस्रों जुग देखे मैंने
अजातशत्रु बन अजर अमर
सदियों से जी रहा हूँ।
काल के काल कलीकाल बनते गये
कल्पों का कोलाहल सुनके भी
मूक सहिष्णु बना रहा।
ना टुटी तन्द्र मेरी
ऐसा ही निशब्द खडा रहा।
अथाह धैर्य शनेः शनेः अनश्वर बनता रहा
धरा की अकुलाहट देख भी
भावना की पाती में ना बहा।
प्रकृति के अकुलाहट में
मोन मेरा पराजित ना हुआ।
कभी कभी जीवित अडिगता मेरी
चित को कटोचती
तुम क्यों भ्रमित हो
पर्वत में भी अचल दिल धडकता।
मानव की विभित्सिका और अधम देख
प्रलय के आँसू रोता।


2 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत बढ़िया.....
पर्वत की व्यथा आपने बखूबी बयाँ की....
सुन्दर रचना.

अनु

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

Sukriya Anu jee ...in Nishbad chijon ki chinta bhi chintit kar deti hai ...bas man ke bhawon ko sabdon ka roop dene ka prayash hai