मन कवलित और क्षोभ सन्ताप,
विरह बेदना का करुण बिलाप ।
प्रमाग्नि से ज्वलित तन,
यादों के दग्द दग्दित आज मन ।
जब जीवन के उषा काल में
प्रेम का भोर था,
उमंग से यौवन का, थमता
नहीं शोर था ।
उन यवनिकाओं के चंचल कलरव से,
गुंजित बृंदाबन का ओर- छोर था ।
कान्हा बांसुरी बजाते, रांस रचाते,
गोपियाँ क्या खग-मृग भी, मुग्द हो जाते ।
अथाह प्रेमवायु संग झूमती सबकी काया,
हर घडी, पल गुजरता त्योहारों वाला ।
अब क्षितिज पर प्रीत
किरणों का अवसान है,
सूना पड़ा बृंदाबन वियोग व्यथा का गान है ।
क्यों छोड़ गए मुरलीधर प्रेम चिंगारी तुम,
गुमसुम अग्नि जलन से जल रही हम ।
© सर्वाध सुरक्षित
.... बलबीर राणा “अडिग”
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें