यूँ डांडी काठियों मा भटकण ब्वे,
गाढ़ गद्नियों मा हिटण ब्वे,
नि लगदु ज्यू पराण यख ब्वे,
ये बोर्डर की जिंदगी ब्वे ।
ये शांत दीखण वली सीमा रेखा मा,
जीवन सदानी अशांत रैयी ब्वे,
संताप बिलाप मंखियत कु,
मनखी वार-पार का तपण रैनी ब्वे ।
पीड़ा यूँ अडिग प्रहरियों की,
कैन जाणणे की कोशिस नि करी ब्वे,
कने होन्दी खाणी कमाणी यूँ की,
कनकै, कैतें समझाणी ब्वे ।
बारहा मेनो की बारहा ऋतू,
यों कभी नि देखी ब्वे,
शाल भर ह्युंद ही रैयी,
या रैयी वर्षभर जेठ और चोमाश ब्वे ।
संबेदनाओं का द्वि बोल,
संकट घडी पर लोग बोली जांदा ब्वे,
सदाहत पर सियासत इन करदन,
जन यूँ का हम क्वी नि लग्दन ब्वे ।
...... बलबीर राणा "अडिग"
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