रविवार, 9 जुलाई 2023

गजल

 


कहीं उधड़न, कुछ की तुलपन है,
हर किसी की अपनी उलझन है।

सुख दुःखों की समवेत कुटयारी यह,
जीवन कभी वीरान कभी गुलशन है।

घाम बर्खा शीत सबके अपने मिजाज,
सदैव न रहता मधुमास सा उपवन है।

सूदों भाताक खाते रहते संपदा को,
यह छूटने वाली केंचुली है उतरन है।

टपकते छप्पर के अंदर सिमटते हैं जो,
पुंगड़ों में श्रम उसी का नाचता सावन है।

पेट घबळाट, कबळाट न करता अडिग,
मनखी यूँ न मारा फिरता धरा आँगन है।

**
कुटयारी - गठरी, भताक - धक्के
पुंगड़े -खेत, घबळाट- असहजता 
कबळाट-कबलाहट

@ बलबीर  राणा 'अडिग'

11 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

वाह लाजवाब ग़ज़ल आदरणीय

anita _sudhir ने कहा…

उत्कृष्ट सृजन

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

आभार महोदया

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

धन्यवाद महोदय

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

बहुत बहुत धन्यवाद अग्रवाल ज़ी आभार

Bharti Das ने कहा…

बहुत सुंदर सृजन

दीपक कुमार भानरे ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय ।

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

धन्यवाद आदरणीय

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

आभार दीपक ज़ी

रेणु ने कहा…

जीवन के कई रंगों को उकेरती भावपूर्ण प्रस्तुति अडिग जी।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🙏

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

तहे दिल आभार रेणु ज़ी