शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

कमलेश्वर महादेव रामासिरांईं रवांईं



घुमक्कड़ी की कड़ी में आज रवांईं घाटी के पुरोला से उत्तर रामासिराईं क्षेत्र में स्थिति प्रसिद्ध शिवालय कमलेश्वर महादेव की यात्रा।
कमलेश्वर महादेव परम फलदाई के रूप में लोक आस्था में विराजमान है, भगवान आशुतोष हैं ही भक्त वत्सल, श्रद्धा से जो मांगे मनोकामना पूर्ण करते हैं, और विशेषकर पुत्र प्राप्ति, नि:संतान दम्पति कभी कमलेश्वर महादेव से निराश नहीं लौटते इसलिए लोक आस्था व विश्वास अपने आराध्य से हमेशा पूर्ण आशान्वित रहता है।
कमलेश्वर महादेव के बारे में लोक मान्यता व किदवंती है कि लंका चढ़ाई से पहले भगवान राम ने रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग स्थापना हेतु लिंग लेने के लिए हनुमान जी को हिमालय भेजा, और जब हनुमान जी लिंग लेकर निकल रहे थे तो इस स्थान पर उन्हें एक कमल दिखा अपने चंचल स्वभाव से हनुमान जी ने कमल लेने के लिए लिंग नीचे रखा, लेकिन लिंग जमीन में रखने से यहीं पर जड़ स्थापित हो गया, इस कारण इस शिवालय का नाम कमलेश्वर पड़ा। कालातीत यह लिंग यहाँ पर जंगली वनस्पति से ढक गई थी, किदवंतियाँ आगे बताती हैं कि पुराने समय में गाँव के किसी व्यक्ति की गाय इस जंगल में आकर शिवलिंग को दूध चढ़ाती थी, एक दिन गाय वाला गाय के पीछे इस जगह पर आया तो तब यहाँ पर शिवलिंग के होने का पता चला, फिर यहाँ पर नित्य पूजा अराधना होने लगी। एक अन्य किदवंती के अनुसार इस शिवालय में बहुत पहले एक कमल नाम के साधु ने साधना की उनके नाम से शिवालय का नाम कमलेश्वर महादेव पड़ा। खैर नाम जैसे भी पड़े अपने अराध्य पर अटूट लोक विश्वास श्रेष्ठ होता है ।
निर्माण शैली व वास्तुकला के मध्यनजर देखें तो जैसा कि उत्तराखंड के महत्वपूर्ण मंदिर कत्यूरी काल के बने माने जाते, वैसा इस मंदिर में नहीं दिखाई देता, निर्माण आधुनिक ही है, मंदिर गुंदियाटगाँव से 2-2.5 किलोमीटर ऊपर चीड़ के जंगलों के बीच प्राकृतिक सुरम्य स्थान पर स्थिति है। मंदिर गर्भ गृह में सुन्दर व बड़ा शिवलिंग मैजूद है, मंदिर के वाह्य में परिक्रमा पथ और पूर्व पश्चिम में दो द्वार हैं । मंदिर प्रांगण में सुन्दर मोटा जल स्रोत है और साथ में छोटा कुण्ड भी, अन्य निर्माण में साधु व पुजारी की कुटियां व आश्रय मंदिर सिमिति द्वारा बनाये गए हैं, मंदिर की पूजा क्षेत्र के बिजल्वाण पंडितों के द्वारा की जाती है जिनकी क्रमानुसार बारी लगी होती है। मंदिर के आसपास स्थानीय लोगों की छानियां हैं जहाँ बारामास पशु चारण रहता है।
कमलेश्वर महादेव से निकलने वाले जल स्रोत के साथ निकट पहाड़ियों से निकलने वाली अन्य छोटी सदानीराओं से मिलकर रामासिराईं से बहने वाली नदी का नाम कमलेश्वर महादेव के नाम से कमल नदी पड़ा जो कि पूरी घाटी की खेती के लिए लाइफ लाइन है और यह नदी नौगाँव में यमुना से मिलती है।
सिंचाई युक्त सुन्दर समतल खेती व बागवानी से भरपूर यह घाटी #पुरोला से नीचे #कमल_सिराईं और पुरोला से ऊपर #रामासिराईं नाम से जाना जाता है। रवाईं के सिराईं/सरैं का अर्थ ग़ढ़वाली #सैरे/सैरों से है। रामासिराईं नाम पड़ना भी लोक मान्यता के अनुसार राम का गाँव से है, कि यहाँ भगवान राम आये थे, रामा नाम का बड़ा गाँव अपने नाम से इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।
रामासिराईं क्षेत्र के मुख्य गाँवों में स्यालुका, डोखरियाणी, रेवड़ी, कंडिया, गुंदियाटगाँव, रौन, रामा, बेस्टी, ढौंकरा डिक्याल, नागझाला, कंडियालगाँव, महर गाँव, इत्यादि 20-25 छोटे बड़े गाँव आते हैं। गर्व की बात है कि लब्ध प्रसिद्ध साहित्यकार बड़े भैजी Mahabeer Ranwalta जी इसी धरती के महर गाँव से हैं, वैसे भैजी का मूल जन्म स्थान सरनौल गाँव, ठकराल पट्टी है, रवांईं रत्न महावीर रवांल्टा जी ने राष्ट्र भाषा हिंदी सृजन के साथ अपनी मातृभाषा रवांल्टी को नईं पहचान दिलायी, इसी प्रेरणा से प्रेरित वर्तमान में क्षेत्र के कई नव साहित्यकार अपनी मातृभाषा रवांल्टी में सृजनरत हैं।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

रवांईं लोक संस्मरण

 


चा पाणि त हयगू, तैका साथ अजाण मनखि ले चटपट बाड़ि बणायिं। #कल्यौ, #गुलथ्या, #लाप्सी #बाड़ी के पर्यावाची शब्द हैं जिन्हें उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। रवांईं में भी इसे बाड़ी कहते हैं। बाड़ी को हमारे लोक का सुपर फूड कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। बाड़ी गेंहूँ व मंडुवा दोनों के आटे से बनता है और गेहूं का बाड़ी मेहमान नवाजी, विशेष त्यौहारों, देवपूजा में नैवैध्य के रूप में देवताओं को भोग लगाया जाता है। बनाने की विधि में कड़ाई में पानी या दूध डालो उसमें जरुरत अनुसार मीठा व दो चार चम्मच घी उबालना फिर उसमें आटा डाल कर डंडे से घोलना और हल्की मध्यम आँच में मध्यम सारा (टाइट) होने तक मर्दन करते हुए घी के साथ पकाना।

परोसने में थाली में जरुरत अनुसार बाड़ी रखना बाड़ी के बीच में चमच या डाडुला से गहरा करना और जमा या गला घी डालना। फिर घी के साथ सपोड़ा-सपोड़ी।
गढ़वाल की बाड़ी और रवांई की बाड़ी में मामूली फर्क है, रवांई में बनाते समय हल्का नमक का प्रयोग होता है, और मीठा, चीनी या गुड़ थाली में परोसा जाता है कि जितनी जरुरत हो उतना लो। #रवांई में नमकीन बाड़ी के प्रयोग की धारणा है कि मीठे से ज्यादा नमक से बाड़ी तागतवर होता है, ऐसा हमने भी महसूस किया।
बाड़ी का औषधीय उपयोग में प्रसूता व घायल के लिए बहुत उपयोगी माना जाता है।
अब संस्मरण के मूल विषय पर। कि चाय पाणी तो हुआ अनजान आगंतुककों के लिए चटपट अति विशिष्ट भोजन बाड़ी भी खिलाया। रवांईं रामासिरांई गुन्दियाट गाँव में आना ड्यूटी का उपक्रम था, बतौर एन सी सी प्रशिक्षक अटल उत्कृष्ट राजकीय इंटर कॉलेज गुन्दियाट गाँव में एक हफ्ते का प्रशिक्षण कार्यक्रम था। रहने खाने की व्यवस्था विद्यालय की और से की गई थी, वैसे भी ग्रामिण क्षेत्रों में खाने व रहने के ठौर की चिंता नहीं होती है।
सुबह पीटी के तहत गाँव के मध्य से निकल रहे थे, माधव बिजल्वाण सुपुत्र श्री द्वारिका प्रसाद बिजल्वाण जी अपने चौक से आवाज़ देते हैं सर जय हिन्द NCC से हो?
जी हाँ, जय हिन्द, खूब छन, घर में सब कुशल मंगल ?
जी सर सब कुशल, आओ चाय पानी पी जाओ।
बेटा अभी नहीं जरा घूम कर आते हैं।
जी सर वापसी में पक्का चाय नाश्ता करके जाना हम इंतजार करेंगे नहीं तो !!!
अरे पक्का यार।
अनजानो के लिए इतनी आत्मीयता हमारे लोक में ही मिलती है, चाहे रवांई हो या उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी क्षेत्र।
घंटा डेड घंटे में वापस आये, मन में नहीं था कि माधव के घर चाय पीनी है। सामान्य औपचारिकता समझ ली थी। पर जब माधव के घर के सामने से गुजर रहे थे तो फिर आवाज़ आयी, सर आ गए ? आओ, आओ हम #जाग्याँ
अब तो जाना ही पड़ा। माधव के घर पर बैठे थे ही थे कि बेटी (माधव की दीदी) पहले पानी फिर चाय ले आयी। सरपट माँ और दादी भी चाय में शामिल हो असल कुशल और छुवीं-बत्त का हिस्सा बन गई। परिचय हेतु बेसिक औपचारिकताएं कि कहाँ से हो? इधर कैसे, कैसे लग रहा है उगैरा उगैरा। बातचीत में पहचान व अपनेपन का सुख दुःख लगने लगा, छुवीं-बत्त में गाँव के एक दो मर्द माणिक भी बैठ गए। मैं ठेरा मातृभाषा प्रेमी, रवांई तो नहीं बोल पा रहा था लेकिन ग़ढ़वाळि व कहीं कहीं पर हिंदी में अपनी तरफ की छुवीं बत्त व संप्रेशण करने लगा। एक आद शब्द छोड़ रवांई अच्छी समझ रहा था। साथी मोहन मन रखने के लिए हुंगरा दे रहा था, रवांईं समझना मुझे इसलिए थोड़ा आसान हो रहा था कि भैजी #महावीर_रवांल्टा जी व अन्य रवांल्टी साहित्यकारों को पढता रहता हूँ।
शारदा काकी (माधव की दादी) कब उठी पता नहीं चला और आधे घंटे में माधव कहता है सर चलो नाश्ता तैयार हो गया। अरे नाश्ता नहीं जी, हमारा नाश्ता बना है। तभी माधव की ब्वे अंदर से आती है, #का_छुवीं_लानी, #कुखि_नि_नौण, पैलि नाश्ता करो। संकोच हो रहा था कि "मान ना मान मैं तेरा मेहमान" माधव हाथ पकड़ कर कीचन में ले गया, बैठने के लिए दरी के ऊपर चौंकले पहले से रखे हुए थे।
काकी चुल्ले के साथ बाड़ी की कड़ाई लिए बैठी थी, बबा आवा बैठा।
काकी (अपनी उम्र के हिसाब से माधव की दादी के लिए मेरा रिश्ता काकी ही बनता था ) यति जल्दी हमूतैं बाड़ी किलै बणायी ?
बबा तुमू मेरा मेमान, मेमान भगवान को रूप रौं, तुमुले नि बड़ौण त #कोयलै बड़ौण।
औ ?? यु ही चरित्र हमारा विशुद्ध लोकै पछयाण छ।
ठिक काकी द्यावा, आज तुमारा हाथक खौला।
काकी ने थाली में बाड़ी परोसी, करछी से बीच में गाढ्ढा किया, दो बड़े चम्मच घी डाला और मुट्ठी भर चीनी थाली के किनारे अलग रखी। मैं और मोहन ( मेरा साथी) ऊहापोह में कि चीनी अलग क्यों, मोहन मेरि तरफ देख रहा था, और माधव अर बौ (माधव की ब्वे) हम दोनों को। मैंने स्थिति पर कंट्रोल करने के लिए, आहा बड्या बोल कर सीधे बाड़ी के कोर पर एकाग्रता रखी। पहला कोर लिया ही था कि समझ में आया चीनी इस लिए अलग सा दिया गया, क्योंकि रवांई में बाड़ी हल्के नमक के साथ बनती है और हमारे यहाँ पूरा मीठे के साथ, हल्का नमकीन, चीनी और घी के साथ और भी अच्छा सवादी (स्वादिष्ट) था। समझ आया कि यहाँ की लोक परम्परा में नमक के साथ ही बाड़ी बनती है। चीनी व घी के साथ मिलकर खूब सपोड़ा फिर छुवीं बातों में अपने यहाँ के मीठे कल्यौ यानि बाड़ी का जिकर किया। शारधा काकी (दादी) बोली, बबा मिठाक साथ बाड़ि मरमरौ कम हौं, अर नूणक साथ खूब मरमरौ रौ, स्वीलड़ू मा बाड़ि बेटमास ले बड्या रौ, बबा स्वीलड़ा मा हम य बाड़ि छक्की खाऊँ तब्बी त यति मरमरा रौ।
हम दोनों के साथ माधव भी खा रहा था, छुवीं बत्त के बीच काकी परोसती रही हम खाते रहे। माधव हिंदी संस्कृति से ग्रेजुएशन कर रहा है, मिलनसार युवा है । बल "जन मयेड़ी तनि जयेड़ी"। दादी, माँ बाप पूरा परिवार मिलनसार एवं अतिथि देवो भव:, सेवा भाव वाले हों तो बच्चों पर संस्कार तो आना ही ठैरा। अतिथि भोजन के बाद काकी से साथ खूब छुवीं बत्त हुई। इस दौरान गाँव में जब किसी से भी औपचारिक बातचीत करो तो आवाभगत के लिए अड़ जाते हैं कि चलो घर में, पर ऐसे जाना जरा संकोच होता ही है।
जहाँ आम शहरी वातावरण में अनजान आगंतुक से दो शब्द सलीके के नहीं बोले जाते हैं व शक की निगाह से देखा जाता है, कौन है? क्यों घूम रहा है? आदि तीखे सवालों से घेरा जाता है वहीं अपने लोक में अनजान आगंतुकों को अथिति रूप में पूजने में संकोच नहीं करते। पूछा जाता है कखा होला, कख होणी दौड़? आवा चा-पाणि पी जावा, जिट घड़ी थौक टेका। सेवाभाव सर्वत्र विराजता है । इसी लिए हमारा लोक साधारणता, सीधेपन व ईमानदारी के लिए विशिष्ट माना जाता है।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

विकास होगा तो



विकास होगा तो

सुनिश्चित हत्यायें होंगी
किसी पहाड़ की, पेड़ पदपों व
इन पर आश्रित जंतुओं की
साथ में पूरे पारिस्थिकीय तंत्र की।

विकास होगा तो
संयम, धैर्य, सहनशीलता
बहुत अच्छी हालात से मरेंगे, और
द्रुतमार्ग पर द्रुत गति से भागेगा
दम्भ, औंछापन व हवाई प्रतिष्ठा।


विकास होगा तो
रुग्ण होती जाएगी
पारिवारिक समरसता
अपनापन, पारिवारिक व सामाजिक मूल्य
और, स्वस्थ-मस्त अट्टाहास करेगा
एकला-अकेला, नैराश्य एकाकीपन।

विकास होगा तो
निर्ममता से कुचली जाएगी
रीति-रीवाज, संस्कृति
खुशियों के नाम पर नाचेगी
वेहुदी नंगी उन्मुक्तता।

विकास होगा तो
वह सब अप्रत्याशित होगा,
कृत्रिम बुद्धिमत्ता आ गई
कृत्रिम आदमी आ गया
अब कृत्रिम जीवन भी आएगा
यकीनन आएगा।

@ बलबीर राणा 'अडिग'
17 Nov, 25

शनिवार, 8 नवंबर 2025

चल सको तो चलो



घुम्मकड़ के साथ चल सको तो चलो,
समय की साधुगिरी निभा सको तो चलो।

जुबानों के कांटे-कंकड़ कहाँ चुप रहने वाले
इनकी चुभती कटारी सह सको तो चलो।

भीड़ इतनी कि पाँव खिसकेगा नहीं इंच भी,
सेंटीमीटरों में इंतजार कर सको तो चलो।
 
ज़माने की तेज रफ़्तार, ऊँची उड़ान के बीच,
उकाळ-उंदार पर पैदल चल सको तो चलो।

अपने वास्ते कोई क्यों बदलने चला वेवजह,
जरुरत की जोरू को बदल सको तो चलो।
 
पहले अपनी वाणी, नहीं तो लाटे की सही
अडिग इशारों की भाषा समझ सको तो चलो।

उकाळ-उंदार - चढ़ाई उतराई
लाटा - गूंगा
8 Nov 2025
@ बलबीर राणा 'अडिग'