पिंजरे
में कैद जीवन
हाँ यहाँ कैद रहती
उसकी दुनियां उसका संसार
यहां
उसके
विचार
कैद
भावनाएं
कैद
कुन्द
होता विवेक
कर्मों
के इस कारागार में
मन का
पंछी
पंख
फडफडाता
वो
उडना चाहता
आजाद
विचारों की अभिव्यक्ति के साथ
बखान
करना चाहता
मन के
उद्गारों को
पूरा
करना चाहता
दिल
के अरमानो को
लेकिन
क्या ??
इसके
आदर्श और आदेशों की बेडियां
इजाजत
देगी ?
आदेश
उच्चस्थ के
धंभ
के
अहम
के
आदर्श
संस्था के
मान
के
सम्मान
के
देश के
स्वाभीमान के
लेकिन
!!!
कौन
समझेगा?
इस
मूक पशु की बेदना को
हाँ मूक
पशु ही है
जो
रक्षित करता
देश
की आन को
बान
को
शान
को
यहां
हांकी जाती उसकी इच्छाऐं
थोपी
जाती बेवाक बर्चनायें
उसके
सच्चे जीवन की आजादी
इस खुले कारागार
के नियमों का
हर
हाल में पालन करना
यही
अज्ञाकारी जीजिविषा से वह
अलौलिक
मनुष्य योनि के सच्चे
उपभोग
से बंचित रखता
रचना
- बलबीर
राणा “भैजी”
२३ सितम्बर 2012
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