यौवन तुझे आज फिर ललकार!!
तेरा जीना बेकार!!
फैला है अनियमिता का अन्धकार
लूट खसोट का व्यापार
खुली आँखो के धृतराष्टों के अंधे युग में
कब तक जीते रहोगे?
घातक देशद्रोही
बने सरकारी मेहमान
कानून इन हत्यारों
को सजा देने में है नाकाम
इस करूणमयी कानून व्यवस्था को
कब तक व्यवस्थित मानते रहोगे?
अर्थव्यवस्था की खस्ता
हालात
रोजमर्रा चीजों की आशमान
छूती लागत
सर्वोच कुर्सी पे बैठे
अर्थशास्त्री के असहाय तर्कों से
कब तक सन्तुष्ट रहोगे?
सत्तर रूपये किलो दाल का
सत्तर फीसदी घरों में लाले हैं।
दप्तर कार्यालयों में रिश्तखोरों के न्यारे वारे हैं।
इनके ही काम के लिए इनको
कब तक रिश्वत देते रहोगे?
भ्रष्टाचार के दंश से तडप रहा देश
जनप्रतिनिधीयों के दो रूपी दो भेष
भ्रष्टाचार के नासूर को
और कब तक सहते रहोगे?
विकाश के वायदे मात्र वोट तक
कार्य संपादन सीमित घोषणाओं तक
सत्ता के लोलुप शकुनियों के पासों में
जीवन की बाजी कब तक हारते रहोगे?
गर्दिश में ना डालो अपने पुरूषार्थ को
जुल्मों का हाहाकार मचा चहुं ओर
खून का दरिया उफान पर
बज्रपात मानवता के मन्दिर में
कब तक सहते रहोगे?
हर दिन चीर हरण हो रहा द्रोपतियों का
दुशासनों की भरमार
महफूज नहीं रही नारी
कब तक मूक किंकर्तव्यविमूढ़ पांडव बने रहोगे?
भाई भाई को लडाया जा रहा
देश की धर्मनिरपेक्षता को
भेदभाव में बिखराया जा रहा
पहले ही इतना बिखर चुके
और कितना बिखराये जाआगे?
अखबार टेलिविजन में रसूखी खबरों की भरमार है।
पूरा सूचनातन्त्र बना चाटुकार है।
भूक गरीबी इनको दिखती नहीं
सुर्खियों मे रसूखदारों के
जलसों के जलवे
अधनंगी बालाओं के ठुमके
देख कर कब तक मदमस्त होते रहोगे?
दहशतगर्दों का आक्रमण देश के चारों ओर
बारूद के ढेरों से भरा ओर छोर
साजिसों से भडकायी जा रही सामप्रदायिकता की ज्वाला
इन साजिसों से कब चेतोगे?
अब ना कोई कृष्ण आयेगा।
ना कोई गीता ज्ञान सुनायेगा।
राज काज ताजपोषी में भाई बन्धु का मोह
स्वयं तोडना होगा।
आज ना कोई सुभाष पुकारेगा।
ना टेगोर गांधी आयेगा।
ना कोई अहिंसा का पाठ पढायेगा।
लोक तन्त्र में हो रही हिंसा को
अहिंसक बनाने को
युवा तुझे आगे आना होगा ।
किसी ना किसी को
भगत सिंह बनना होगा।
रगं दे बसन्ती गाना होगा।
पडोसी नही!!
अपने ही घर में मातम मनवाना
होगा।
चोरों से देश को बचाना होगा।
जाग यौवन जाग
दर दर ना भाग
कब तक सोता रहेगा?
कब तक भटकता रहेगा?
यौवन तुझे ललकार है
नही तो तेरा जीना बेकार है!!!! जीना बेकार है!!!!
बलबीर राणा "भैजी"
08 सितम्बर 2012
2 टिप्पणियां:
नमस्कार मित्रो .... देश में वर्तमान परिवेश के चलते जीवन की डगर असहज होती जा रही है और इसमें देश के युवाओं की मुक्दार्शिता एक सवालिया निशान छोडती है इन्हीं सवालों को शब्दों रूप दिया है ... आप से अनुरोध है की पूरा जरुर पढ़ें .. मार्गदर्शन के लिए आपके अनुभवी सुझाओं की प्रतीक्षा में ....
वीररस से सरोबार यह कविता सचमुच ही रोमांचित करती है.
आह्वाहन है युवा पीढ़ी को, काश ! ये देश जाग सकता....
फिर से एक क्रांति की जरूरत है राणा जी.
एक टिप्पणी भेजें