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रूद्र तेरे रूप ने कल के
हंसते खेलते जीवन को
आज !!!!!
शोकसंतप्त बिरानी में बदल दिया।
गिददों का अकाट्य
जमवाडा ।
हाहाकार मचाता
क्रुर………… क्रन्दन ।
अपराधी बनी बिद्याता
निठली मूक खडी है ।
अश्रु भरे चेहरों को
आक्रोषित नजरों से घूर
रही है ।
प्रकृति तेरे धुर्त
अकर्मण्य कर्म ने
चहकते चमन,
महकते आंगन को
रिसता रगड बना बना दिया ।
जहाँ
अब जीवन के अवशेष
मिटटी गारों के साथ
पुल-पुल करते बह रहे।
रात झींगुरों का सुर,
दुखी दिलों को चीर रहा ।
अरे !
यह सन्ताप !!!!
र्निदोशों को क्यों दे
गया?
ऐ प्रकृति तेरे रूद्र रूप से
भ्रष्टाचार रथ के सारथी
आने वाले हैं ।
त्रासदी भरे मातम में अपना
रथ चलाने वाले है ।
तेरे कर्म पर राज रोटी सेंकने
वाले हैं ।
कुछ राहत के छीटें मार ………. मानवता की इतिश्री करने वाले हैं ।
दुखीयों के नाम खुद का
घर भरने वाले हैं।
तु ही बता
किस रूद्र रूप का सामना करें ?
तेरे या खुद के ......
(रगड =
भुस्खलन के बाद की जमीन, पुल-पुल = आहिस्ता खसकती जमीन, गारे
= छोटे कंकड पत्थर)
बलबीर राणा "भैजी"
१६ सितम्बर २०१२
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