शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

महासू देवता

 


नियति को फलित और बदनियति को दण्डित करते हैं महासू महाराज


महासू महाराज मात्र धार्मिक प्रतीक नहीं बल्कि अनुशासित जीवन जीने की परम्परा है, महाराज एक बड़े क्षेत्र वासिंदों की आत्मचेतना की तह तक विराजमान हैं एवं आस्था, विश्वास व सद जीवन प्रेणा के सर्वेसर्वा हैं। उत्तराखण्ड के जौनसार बावर, बंगाण, रवांई, जौनपुर व हिमाचल में सिरमौर, सोलन, शिमला बिशैहर तक महासू महाराज की पूजा होती है। महासू देवता दो प्रदेशों के मध्य लोक विश्वास, सांस्कृतिक विरासत, सामुदायिक एकता के प्रतीक के साथ क्षेत्र के अधिष्ठाता, रक्षक और न्यायकर्ता के रूप ख्यात-प्रख्यात हैं।  परम लोक विश्वास है कि महाराज का न्याय सद निष्ठा नियति के लिए पूर्ण फलित और कुनिष्ठा बद नियति के लिए यकीनन दंडित-खण्डित करने वाला वाला होता है।  
महाराज के देवस्थानों की यात्रा व जनश्रुतियों से साकार होने के बाद पूर्ण निष्ठा के साथ महासू देव परम्परा को विस्तार व बिंदुवार लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहा हूँ फिर भी कहीं त्रुटि रह गई होगी तो भगवान महासू से क्षमा प्रार्थी हूँ और पाठकों से सुधार की अपेक्षा करता हूँ।
चार भाई महासू:-
बोठा, बासिक, पवासी और चालदा चार भाई महासू महाराज। महासू न्याय के देवता के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनका प्रतिष्ठान उत्तराखंड व हिमाचल दो राज्यों के सीमांत क्षेत्र जौनसार बावर के हनोल व आसपास स्थिति है। महासू दोनों राज्यों के लोक संस्कृति का साझा देवालय है। महासू शब्द की उत्पत्ति महाशिव से मानी जाती है यानि भगवान शिव इस क्षेत्र में महासू के रूप में विराजमान हैं। हनोल में बोठा महाराज, हनोल से आगे नजदीक टौंस नदी पार ठडियार गांव में पवासी महाराज, हनोल से पहले मैन्द्रथ में बासिक महाराज रहते हैं व चालदा महाराज पूरे अधिकार क्षेत्र में चल देवता के रूप में जन रक्षा के लिए भ्रमण करते हैं, चालदा महाराज का भ्रमण ब्यौरा आगे दिया गया है।   
देहरादून जनपद के जौनसार‑बावर क्षेत्र में टौंस नदी के किनारे समुद्रतल से लगभग 1250 मीटर की ऊँचाई पर बसे हनोल गाँव में महासू महाराज का प्राचीन मंदिर स्थित है। देहरादून से महासू देवता के मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन सड़क मार्ग हैं। पहला 188 किमी लंबा मार्ग देहरादून, विकासनगर, चकराता व त्यूणी होते हुए हनोल तक जाता है। दूसरा 175 किमी देहरादून, मसूरी, नैनबाग, पुरोला व मोरी होते हुए हनोल पहुंचता है। जबकि, तीसरा मार्ग 178 किमी  देहरादून से विकासनगर, छिबरो डेम, क्वाणू, मिनस, हटाल व त्यूणी होते हुए हनोल तक है। 
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :-
पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) के अभिलेखों के अनुसार हनोल महासू मंदिर नौवीं-दसवीं शताब्दी के आसपास निर्मित प्राचीन मंदिरों में गिना जाता है इसी कालखण्ड के आस-पास उत्तराखंड के सभी ऐतिहासिक मंदिर निर्मित माने जाते हैं। महासू मंदिर देहरादून सर्किल की संरक्षित स्मारक सूची में भी शामिल है। महासू महाराज का कनेक्शन राष्ट्रपति भवन से भी जुड़ा है, राष्ट्रपति भवन से मंदिर में पार्सल आता था, जिसमें नमक की तरह दिखने वाली धूप बत्ती होती थी और पार्सल पर दिल्ली का पता होता था। महासू मन्दिर को न्यायालय के रूप में भी माना जाता है।  
मंदिर वास्तुशिल्प और कलात्मकता :-
मंदिर शुद्ध पत्थरों से निर्मित नागर शैली शिखर युक्त गर्भगृह (मूलप्रसाद) बना है, जिसके आगे मंडप और मुखमंडप कालान्तर में जोड़े गए लगते हैं, और मंदिर का जो स्वरूप आज है वह विभिन्न कालखंडों में हुए परिवर्तनों का प्रतीक हैै। हनोल, ठडियार व मैन्द्रथ तीन भाई महासू महाराज (बोठा, पवासी और बासिक) के मंदिरों की वास्तुशिल्प व कलात्मकता कालखण्डों से इस क्षेत्र की प्रस्तर व काष्ठकला का परिचय कराती है। 
मंदिरों के वेजोड़ निर्माण में पत्थर व लकड़ी का विलक्षण समन्वय देखा जा सकता है। शिखर युक्त गर्भगृह के चारों ओर व अग्रभाग में लकड़ी की सुन्दर भव्य संरचनायें बनी हैं। मंदिर की ढालदार छत पठाल/स्लेट से आच्छादित है, उसके ऊपर दो‑स्तरीय शंक्वाकार छत्री और सर्वाधिक शीर्ष पर सुडौल कलश स्थापित किया गया है। छत व कंगूरों से लटकते धातु व लकड़ी के घुँघरू-घंटियों की कलात्मकता मन को मोहती हैं। मंदिर गर्भगृह के आगे भंडार‑कक्ष, मंडप और सभा‑मंडप अलग‑अलग छतों वाले हैं, जिनके स्तंभों, द्वार भित्तों पर वेजोड़ काष्ठ शिल्पकला से देव‑प्रतिमाएँ, यक्ष‑यक्षिणियाँ, महासू देवता द्वारा दानव वध युद्ध के चित्र, पशु‑आकृतियाँ, पौराणिक दृश्य व सम्पूर्ण लोक‑जीवन को उकेरा गया है। 
गर्भगृह में महासू महाराजों व देवलाड़ी माता की मूर्तियाँ, कांस्य व चांदी जड़ित धातु मुख़ारे (मुखाकृतियों) के रूप में विराजमान हैं। किंवदंतियां मंदिर निर्माण को हूण वंशीय शिल्पी राजा मिहिरकुल हूण और ‘हूण’ स्थापत्य परंपरा से भी जोड़ती हैं, जिससे यह स्थल मध्यकालीन उत्तर भारत के राजनीतिक व सांस्कृतिक सौहार्द का भी साक्षी माना जाता है।
पूजा विधान :-
  गर्भगृह (मूलप्रसाद) में प्रवेश केवल नियुक्त परंपरागत क्षेत्रीय ब्राह्मण पुजारी ही कर सकते हैं, जिनमें डोभाल, जोशी और नोटियाल आदि जाति के ब्राह्मण हैं एवं पुजारी की सेवा के लिए थानी नियुक्त होते हैं, थानी में चौहान इत्यादी राजपूत जातियां के पुरुष होते हैं। वैसे यह नियुक्ति स्प्ताह दो सप्ताह के लिए ग्रामवार, उपलब्धता व सार्मथ्य के अनुसार बारी से होती है लेकिन कोई पुजारी या थानी ज्यादा समय के लिए भक्ति करना चाहता है तो कर सकता है। जिस समयावधि में पुजारी महासू महाराज की पूजा के लिए नियुक्त रहता है उस अवधि में पंडित जी के लिए कठिन तप विधान बना है, इस समयावधि में पुजारी रोज अनुष्ठान में रहता है, उस दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य व बाह्य‑सम्पर्क से विरत रहता है, पुजारी का आजीवन शाकाहारी होना जरूरी है। पुजारी का किसी भी व्यक्ति के हाथ का खाना व छूना पूर्ण वर्जित होता है यहां तक कि बाहर से आये भक्तों का टीका प्रसाद थानी करता है। पुजारी रोज अपने हाथ से भोग बनाता है महाराज को भोग लगाता है और खुद पाता है, इस कार्य में भोग पूर्व की  तैयारी थानी जी करते है। भंडार‑कक्ष भी ब्राह्मणों के अधीन होता है। वर्तमान में मन्दिर समिति के बन जाने से मन्दिर की सफाई व वाह्य एडमिनिस्ट्रेटिव व्यवस्था समिति देखती है और मन्दिर का चढ़ावा इत्यादी का संचय व विनिमय भी समिति के अधीन होता है। बाहर का सामान्य भक्त मंदिर के आँगन, मंडप तथा बाह्य परिक्रमा‑पथ में खड़े होकर पूजा, धूप‑दीप, नारियल, धान‑अन्न, पशु‑बलि (अब निषिद्ध), और नृत्य‑गान से अराधना करते हैं। 
पौराणिक कथा और लोक‑मान्यता :-
पौराणिक कथा और लोक‑मान्यता के अनुसार महासू महाराज की उत्पत्ति हूण भट्ट नामक तपस्वी ब्राह्मण से जुड़ा है। हूण के नाम से ही वर्तमान हनोल गाँव का नाम हनोल पड़ा पहले यह जगह चकरपुर के नाम से जानी जाती थी। मान्यता ये भी है कि पांडव लाक्षागृह से निकलकर यहाँ आए थे। 
  कथा के अनुसार यह क्षेत्र किल्मीर (किरमीर) नामक राक्षस के अत्याचार से त्रासद था। किल्मीर राक्षस ने हूण भट्ट के सात पुत्रों का भक्षण किया व ब्राह्मण की पत्नी पर कुदृष्टि डालने लगा तदउपरांत हूण भट्ट को देवताओं द्वारा आदेशित किया गया कि आप कश्मीर जाओ और भगवान शंकर की तपस्या करो शंकर भगवान ही इस राक्षस से निजात दिलाएंगे। हूण भट्ट ने सपत्नी कश्मीर में भगवान शंकर की पतस्या की, अराधना के बाद उन्हें कश्मीर से एक टोकरी में फूल देकर लौटाया और सात दिन जुताई करने तक प्रतिक्षा करने को कहा कि भगवान पैदा होंगे। ब्राह्मण हूण भट्ट भगवान के वचनों का पालन करते हुए जुताई करने लगे लेकिन इधर राक्षस का अत्याचार क्षेत्र पर और बढ़ने लगा जिससे इन्तजार करना कठिन हो रहा था, छटवें दिन ब्राह्मण हूण भट्ट ने हल को गहराई में लगाना सुरू किया कि धरती से एक-एक करके चार भाई महासू पैदा हुए। तदउपरान्त महासू भाईयों ने अपने वीरों के साथ किल्मीर राक्षस व उसकी सेना का नाश करके सम्पूर्ण क्षेत्र को राक्षसी अत्याचार से मुक्त किया। किंवदंती के अनुसार हनोल से आगे खूनीगाड़ (वर्तमान में सड़क के साथ छोटा गाँव) नामक गदेरे का खूनीगाड़ नाम पड़ने से भी है कि इस गदेरे में राक्षसों का संहार करके महासू सेना ने खून की गंगा बहा दी थी। 
किंवदंती के अनुसार गहराई में हल चलने की वजह से धरती से उत्पन्न हुए महासू भाई हल की फाल से चोटिल हो गए थे, जिसमें बड़े भाई बोठा महाराज के घुटने पर चोट आयी, चलने से असमर्थ होने बोठा महाराज यथा स्थान हनोल में ही रहे, उनके बाद पवासी महाराज का कान चोटिल हो गया और वे कान से बहरे हो गए वे नजदीक ठडियार गाँव मे रहे, तीसरे भाई बासिक महाराज की आँख पर चोट आई वे मैन्द्रथ में रहे, और अंत में चौथे भाई चालदा महाराज बिना चोटिल पैदा हुए जिससे चालदा पूरे क्षेत्र में भ्रमण करके क्षेत्र की रक्षा करते हैं।   
  क्षेत्र को राक्षस मुक्त करने के उपरान्त चारों भाईयों ने अपने वीरों के साथ क्षेत्र रक्षा की जिम्मेवारी बांटी। चार महासू भाईयों के साथ उनके वीरों का स्थापत्य भी पूज्यनीय है, बोठा महाराज के कईलू वीर उनके साथ हनोल में, बासिक महाराज के कपला वीर उनके साथ मैन्द्रथ में, पवासी महाराज के वीर कैलाथ ठडियार और चलदा महासू के सिड़कुड़िया वीर फते पर्वत पट्टी, रुपिन घाटी मौरी ब्लॉक के रक्षक हैं। 
लोक आस्था :-
लोक में महासू महाराज को न्याय के देवता के रूप में माना जाता है, महाराज के समक्ष की गई अर्जी‑फरियाद फलदायी होती है। क्षेत्र के गाँवों के देवमंडपों पर महासू का आधिपत्य स्वीकार किया जाता है और लोकदेवता की संस्था के रूप में वे अन्य ग्राम देवताओं के भी अधिपति माने जाते हैं। महासू देवता के प्रति लोक आस्था इतनी प्रबल है कि सब तरफ से निरास व्यक्ति महासू द्वार से निरास नहीं जाता है। महासू देवता की श्रद्धा से की गई भक्ति-अनुष्ठान यक़ीनन फलदायी होता है। कहते हैं कि महासू के न्याय से कोई अपराधी दंड बिना नहीं बच सकता। अगर किसी निष्कपट भुक्त भोगी व्यक्ति ने जिस अन्याय कर्ता के प्रति महासू महाराज को पुकारा यानि घात डाली वह कभी नहीं उतरती और महासू महाराज उसको पूरी तरह दण्डित करके छोड़ते हैं ऐसी परम मान्यता जौनपुर पट्टी टेहरी तक भी है। 
भक्त लोग महाराज जी के चरणों में अपनी मनोकामना के लिए सच्ची प्रतिज्ञा करते हैं कि यदि उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तो वे पुनः दर्शन करने आएंगे और उनके लिए इच्छा शक्ति से चढ़ावा देंगे जैसे धातु में सोना, चाँदी, अति उत्तम भोग या बकरा बलि भी शामिल थी जो वर्तमान में निषेध कर दी गई है। वर्तमान में चढ़ाये हुए बकरे को वहीं छोड़ा जाता है जिसे घांडुवा कहा जाता है।
एक और रोचक तथ्य कि हनोल मंदिर परिसर में दो विशेष पत्थर रखे हैं मान्यता के अनुसार उन पत्थरों को केवल निष्कपट, पवित्र हृदय वाला व्यक्ति ही सहजता से उठा सकता है, जबकि गलत नेक नियति वाला व्यक्ति नहीं उठा सकता है इसलिए अधिकतर इसे आजमाने से बचते हैं, कलयुगी मनुष्यों का चरित्र कहाँ इतना पावन रहने वाला। इस परिक्षा को भी लोक‑धर्म व सत्यनिष्ठा का प्रतीक माना जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 
लोक समाज में विवाह, भूमि‑विवाद, पशुधन और फसल से जुड़ी शपथें भी अनेक बार महासू के नाम पर ली जाती हैं, महासू की शपथ ले ली तो व्यक्ति सच्चा निष्कपट माना जाता है यह भी सामाजिक अनुशासन एवं विधि‑व्यवस्था में देवता की सुदृढ़ नैतिक सत्ता का द्योतक है। देवता के सामने कोई भी व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकता ऐसा दृड विश्वास है।  
महासू पर्व :-
हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी (नाग चौथ) के दिन हनोल का ‘जागरा’ महासू महाराज के प्रमुख वार्षिक अनुष्ठानों में से एक है, जिसमें देव-मूर्तियों का विशेष स्नान, शुद्धिकरण, डोली यात्रा, रात्रि‑जागरण, नृत्य‑गान और जागर लगाने की परंपरा है जिसे पूरे क्षेत्र का हर वासिंदा यकीनन हाजरी लगाकर हर्षाेल्लास व नियम पूर्वक मनाता है। नाग चौथ जागरा में क्षेत्र के प्रवासियों एवं उत्तराखण्ड, हिमाचल के अन्य क्षेत्रों सेे भी भक्त बड़ी संख्यां में आते हैं।  
छत्रधारी चालदा महाराज की यात्रा :-
जैसे कि उपरोक्त वर्णित है छत्रधारी चालदा महाराज चल देवता के रूप में पूजित हैं, उनका कोई स्थाई मन्दिर नहीं है, वे एक वर्ष एक क्षेत्र पड़ाव में रहते हैं। महाराज की डोली मार्गशीर्ष में नियुक्त तिथि को बाहर निकलती है और अगले पड़ाव को निकलती है यह पड़ाव कहाँ कितने वर्षों का होगा देवता खुद बताता है। चालदा महाराज की  यात्रा पैदल ही होती है। 
इस वर्ष 2025 की यह ऐतिहासकि यात्रा जौनसार के दसऊ से 70 किलोमीटर दूर हिमाचल सिरमौर जिले के पश्मी गाँव को निकली। पश्मी गाँव में चालदा महाराज का संदेश पांच साल पहले घांडुवा (बकरा) के रूप में आया था। प्रत्यक्षदर्शीयों के अनुसार 2020 में एक घांडुवा पश्मी गाँव में आकर ठहर गया, लोग उसे सामान्य बकरा मान अन्यत्र छोड़ दें लेकिन बकरा हर बार फिर वहीं आकर रुकता, जब क्रम की पुनरावृत्ति होती रही तो चालदा महाराज अवतरित हुए और महाराज ने अपने आने के संदेश को घांडुवा रूप में देने की पुष्ठि की। तद्उपरान्त पश्मी गाँव व आस-पास के गाँवों ने मिलकर दो करोड़ लागत से महाराज का मन्दिर बनाया। 
महासू परंपरा सत्य, न्याय और सामाजिक संतुलन की उस धुरी को दर्शाती है जिस पर क्षेत्रीय समाज ने शदियों से अब तक अपनी नैतिकता कायम रखी हुई है। अपने अराध्य के उपर किस अति विश्वास व श्रद्धा में रहा जा सकता है यह क्षेत्र विशेष के जन मानस में देखा जा सकता है। महासू यात्रा के दौरान रास्ते में पड़ने वाले पड़ावों पर उमड़े भक्त जन सैलाब को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोक दिलों में कितनी गहराई तक महासू विराजमान हैं। क्या बड़ा, क्या छोटा, क्या शहरी क्या ग्रामिण सब महाराज के सेवक रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं।  

@ बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’     




गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

घुमक्कड़ी रुपिन सुपिन घाटी



घुमक्कड़ी की कड़ी में रुपिन व सुपिन नदियों का संगम नेटबाड़ के साथ सौड़-सांकरी, जखौल, दिवारा, मोरी ब्लॉक का वृतांत। नेटवाड़ से ही रुपिन -सुपिन नदियां मिलकर टौंस (तमस) नदी के नाम से जानी जाती है, टौंस डाकपत्थर में जाकर यमुना से मिलती है। रुपिन नदी का मुख्य उदगम बराड़ ताल ग्लेशियर है जो माझी बन से आगे पश्चिम में डोडाक्वार हिमाचल और उत्तर में तिब्बत से लगता है, नेटवाड़ से आगे रुपिन घाटी में 8-10 सीमांत गाँव हैं। वहीं सुपिन नदी का उदगम हरकीदून ग्लेशियर है। उत्तरकाशी जिले के इस सीमांत मोरी ब्लॉक में मुख्य तीन पट्टियाँ हैं, सिगतूर पट्टी जो पुरोला से उत्तर  पश्चिम का भूभाग टौंस नदी के साथ मोरी, नेटवाड़ का क्षेत्र हैं, वहीं पंचगाईं पट्टी नेटवाड़ से उत्तर में सुपिन घाटी वाला क्षेत्र है और नेटवाड़ के पश्चिम में रुपिन घाटी के साथ फ़ते पर्वत पट्टी आती है ।

पंचगाईं पट्टी मोरी ब्लॉक का मुख्य पर्यटक क्षेत्र है जिसमें

"गोविन्द नेशनल पार्क" के अंतर्गत सौड़-सांकरी, उत्तराखंड के बड़े गाँव में से एक जखोल गाँव, द्योक्यारा बुग्याळ, हरकीदून, केदार कांठा बुग्याळ, पाली पास एवं ब्लैक पीक आदि 10-15 ट्रेक पड़ते हैं । वर्तमान पुरोला विधायक श्री दुर्गेस्वर लाल आर्य फिताड़ी गाँव के हैं और चर्चित बद नाम हाकम सिंह लिवाड़ी से हैं, जो जखोल घाटी का सबसे अंतिम गाँव है।

सौड़-सांकरी से हरकीदून ट्रेक का आखरी गाँव ओसला, तालुका, डॉटमीर है, वर्तमान में ट्रेकर सांकरी में रुकने के वजाय सीधे तालुका जाना ज्यादा सुगम मानते हैं क्योंकि तालुका तक सड़क संपर्क हो चुका है।

विकास की दृष्टि से राज्य के अन्य सीमांत क्षेत्रों के अनुरूप यह क्षेत्र भी काफी कुछ मूलभूत अवश्यकताओं की बाट जोह रहा है, जिस तरह सेब बगवानी व ट्रेकिंग में यह क्षेत्र व्यक्तिगत आजीविका में सक्षम होता जा रहा है वहीं उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य व सड़क जैसे विकासन्नोमुख योजनाओं के लिए अभी भी आशा लगाए बैठा है, एक बानगी मोरी से आगे राजमार्ग की हालत आपको इसकी गवाही देता है।

आम लोक जीवन चर्या में नकद फसल व पशुपालन अब कम हो गया है कारण बागवानी में सेब उद्यान मुख्य आजीविका का साधन बन गया है।

गाँव अभी अपने वैभव में है, सभी गाँव परिवारों से भरे पड़े हैं, क्षेत्रीय लोगों ने अपने गाँव के साथ बजारों में भव्य मकान, होम स्टे, होटलों पर अच्छा इन्वेस्टमेन्ट किया हुआ है। यह आमजन की अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम और लगाव को दर्शाता है।

गाँव में परिवारों की मैजूदगी केवल सरकारी और अच्छा रोजगार बाहर नहीं होने का कारण है, बाकी पलायनी सोच यहाँ भी वही है जैसे पूरे उत्तराखंड में है, जिसको अच्छा रोजगार व सरकारी नौकरी मिली रही वह भाग ही रहा है।

क्षेत्र अति शर्द होने के कारण मुख्य लोक पहनावे में स्थानीय भेड़ की ऊन का कोट पेंट देखा जा सकता है जिसमें महिलाओं की फज्जी (ऊन का लम्बा कुर्ता व सलवार) आकर्षक व पारम्परिकता प्रथमम का द्योतक है। सिखोली (जिसे हिमाचली टोपी नाम से भी जाना जाता है ) पुरुषों के सर पर हर समय सजी रहती है। साथ ही फज्जी के साथ कमरबंध।

ईष्ट देवता के रूप में फ़ते पर्वत पट्टी के ईष्ट देवता सैड़कुलिया महासू (महासू वीर), पंचगाईं में सोमेश्वर महाराज व सिगतूर पट्टी के ईष्ट देवता कर्ण महाराज हैं। कर्ण महाराज का भव्य पौराणिक मंदिर नेटवाड़ से उपर देवरा गाँव में स्थिति है, वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मंदिर भी  शिखरयुक्त  है व नयाँ ही बना है यानि आठरवीं या उन्नीसवीं शताब्दी का। मंदिर के प्रांगण में पाषाण निर्मित अनेक देव प्रतिकों के साथ अशोक स्तम्भ के चार मुखी शेर की आकृति विराजमान हैं। कर्णमहाराज के पुजारी देवरा गाँव के नोटियाल पंडित हैं और गाँव के नाथ जाति खुद को कर्ण के वीरों के रूप में मानती है।

दो राज्यों उत्तराखंड-हिमाचल, दो जनपद देहरादून-उत्तरकाशी के सीमांत जौनसार-भाभर, बंगाण व रवांईं

लोक-संस्कृति का साझा ईष्ट देवता महासू महाराज पूरी टौंस घाटी के अधिष्ठाता, रक्षक और न्यायकर्ता देवता के रूप में सर्व पूजित हैं।

बोली भाषा की दृष्टि से देखा जाय तो उत्तरकाशी जिले के पश्चिम सीमांत इस क्षेत्र की बोली रवांईं, बंगाणी और हिमाचली का मिश्रित रूप है, फिर भी समस्त मोरी ब्लॉक में अपवाद कुछेक क्षेत्रीय टोन के रवांईं ही बोली जाती है और आम जन अपने को रवांईं से ज्यादा कनेक्ट करता है इतर बगाण या हनोल।

आम जन गढ़वाली भाषा को ठीक-ठाक समझ-बींग लेते हैं। "मेरि भाषा मेरि पछयाण" अभियान के तहत आम लोगों से संवाद के दौरान यह अनुभव मिला। मेरा संवाद आम लोगों से गढ़वाली में ही रहा लेकिन उनकी तरफ से न समझने वाला कोई संकेत नहीं मिला, हाँ उनका जबाब स्थानीय के साथ हिंदी में जरूर था।

@ बलबीर राणा "अडिग"

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

सजल



उदयाचल से उगना, अस्ताचल में छिपना होता,
देखो, सूरज को रोज धरा के लिए नापना होता।

वो प्रकृति ऋतु-चक्रों के आदेशों को नहीं तोड़ती,
शीत, घाम, बरखा, हर हाल में उसे चलना होता।

हम मनुष्य पल, घड़ी, दिन-बार देख बदलते हैं रंग,
पर आत्मा को तयसुदा वक्त पर शरीर बदलना होता।

श्रम की तपती रेत में अथाह भाग रहे हैं दिन-रात,
कुछ को स्व, कुछ को परहित प्रारब्ध पाना होता।

संभलने–फिसलने में ही समय हो जाता अवसान का,
फिर भी आख़िरी साँस तक जी-जान से उलझना होता।

सच है नियती को जो करना है, करके रहेगी 'अडिग'
फिर भी तेरा ज़ोर–ज़बर नियति से लड़ना होता।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

कमलेश्वर महादेव रामासिरांईं रवांईं



घुमक्कड़ी की कड़ी में आज रवांईं घाटी के पुरोला से उत्तर रामासिराईं क्षेत्र में स्थिति प्रसिद्ध शिवालय कमलेश्वर महादेव की यात्रा।
कमलेश्वर महादेव परम फलदाई के रूप में लोक आस्था में विराजमान है, भगवान आशुतोष हैं ही भक्त वत्सल, श्रद्धा से जो मांगे मनोकामना पूर्ण करते हैं, और विशेषकर पुत्र प्राप्ति, नि:संतान दम्पति कभी कमलेश्वर महादेव से निराश नहीं लौटते इसलिए लोक आस्था व विश्वास अपने आराध्य से हमेशा पूर्ण आशान्वित रहता है।
कमलेश्वर महादेव के बारे में लोक मान्यता व किदवंती है कि लंका चढ़ाई से पहले भगवान राम ने रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग स्थापना हेतु लिंग लेने के लिए हनुमान जी को हिमालय भेजा, और जब हनुमान जी लिंग लेकर निकल रहे थे तो इस स्थान पर उन्हें एक कमल दिखा अपने चंचल स्वभाव से हनुमान जी ने कमल लेने के लिए लिंग नीचे रखा, लेकिन लिंग जमीन में रखने से यहीं पर जड़ स्थापित हो गया, इस कारण इस शिवालय का नाम कमलेश्वर पड़ा। कालातीत यह लिंग यहाँ पर जंगली वनस्पति से ढक गई थी, किदवंतियाँ आगे बताती हैं कि पुराने समय में गाँव के किसी व्यक्ति की गाय इस जंगल में आकर शिवलिंग को दूध चढ़ाती थी, एक दिन गाय वाला गाय के पीछे इस जगह पर आया तो तब यहाँ पर शिवलिंग के होने का पता चला, फिर यहाँ पर नित्य पूजा अराधना होने लगी। एक अन्य किदवंती के अनुसार इस शिवालय में बहुत पहले एक कमल नाम के साधु ने साधना की उनके नाम से शिवालय का नाम कमलेश्वर महादेव पड़ा। खैर नाम जैसे भी पड़े अपने अराध्य पर अटूट लोक विश्वास श्रेष्ठ होता है ।
निर्माण शैली व वास्तुकला के मध्यनजर देखें तो जैसा कि उत्तराखंड के महत्वपूर्ण मंदिर कत्यूरी काल के बने माने जाते, वैसा इस मंदिर में नहीं दिखाई देता, निर्माण आधुनिक ही है, मंदिर गुंदियाटगाँव से 2-2.5 किलोमीटर ऊपर चीड़ के जंगलों के बीच प्राकृतिक सुरम्य स्थान पर स्थिति है। मंदिर गर्भ गृह में सुन्दर व बड़ा शिवलिंग मैजूद है, मंदिर के वाह्य में परिक्रमा पथ और पूर्व पश्चिम में दो द्वार हैं । मंदिर प्रांगण में सुन्दर मोटा जल स्रोत है और साथ में छोटा कुण्ड भी, अन्य निर्माण में साधु व पुजारी की कुटियां व आश्रय मंदिर सिमिति द्वारा बनाये गए हैं, मंदिर की पूजा क्षेत्र के बिजल्वाण पंडितों के द्वारा की जाती है जिनकी क्रमानुसार बारी लगी होती है। मंदिर के आसपास स्थानीय लोगों की छानियां हैं जहाँ बारामास पशु चारण रहता है।
कमलेश्वर महादेव से निकलने वाले जल स्रोत के साथ निकट पहाड़ियों से निकलने वाली अन्य छोटी सदानीराओं से मिलकर रामासिराईं से बहने वाली नदी का नाम कमलेश्वर महादेव के नाम से कमल नदी पड़ा जो कि पूरी घाटी की खेती के लिए लाइफ लाइन है और यह नदी नौगाँव में यमुना से मिलती है।
सिंचाई युक्त सुन्दर समतल खेती व बागवानी से भरपूर यह घाटी #पुरोला से नीचे #कमल_सिराईं और पुरोला से ऊपर #रामासिराईं नाम से जाना जाता है। रवाईं के सिराईं/सरैं का अर्थ ग़ढ़वाली #सैरे/सैरों से है। रामासिराईं नाम पड़ना भी लोक मान्यता के अनुसार राम का गाँव से है, कि यहाँ भगवान राम आये थे, रामा नाम का बड़ा गाँव अपने नाम से इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।
रामासिराईं क्षेत्र के मुख्य गाँवों में स्यालुका, डोखरियाणी, रेवड़ी, कंडिया, गुंदियाटगाँव, रौन, रामा, बेस्टी, ढौंकरा डिक्याल, नागझाला, कंडियालगाँव, महर गाँव, इत्यादि 20-25 छोटे बड़े गाँव आते हैं। गर्व की बात है कि लब्ध प्रसिद्ध साहित्यकार बड़े भैजी Mahabeer Ranwalta जी इसी धरती के महर गाँव से हैं, वैसे भैजी का मूल जन्म स्थान सरनौल गाँव, ठकराल पट्टी है, रवांईं रत्न महावीर रवांल्टा जी ने राष्ट्र भाषा हिंदी सृजन के साथ अपनी मातृभाषा रवांल्टी को नईं पहचान दिलायी, इसी प्रेरणा से प्रेरित वर्तमान में क्षेत्र के कई नव साहित्यकार अपनी मातृभाषा रवांल्टी में सृजनरत हैं।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

रवांईं लोक संस्मरण

 


चा पाणि त हयगू, तैका साथ अजाण मनखि ले चटपट बाड़ि बणायिं। #कल्यौ, #गुलथ्या, #लाप्सी #बाड़ी के पर्यावाची शब्द हैं जिन्हें उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। रवांईं में भी इसे बाड़ी कहते हैं। बाड़ी को हमारे लोक का सुपर फूड कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। बाड़ी गेंहूँ व मंडुवा दोनों के आटे से बनता है और गेहूं का बाड़ी मेहमान नवाजी, विशेष त्यौहारों, देवपूजा में नैवैध्य के रूप में देवताओं को भोग लगाया जाता है। बनाने की विधि में कड़ाई में पानी या दूध डालो उसमें जरुरत अनुसार मीठा व दो चार चम्मच घी उबालना फिर उसमें आटा डाल कर डंडे से घोलना और हल्की मध्यम आँच में मध्यम सारा (टाइट) होने तक मर्दन करते हुए घी के साथ पकाना।

परोसने में थाली में जरुरत अनुसार बाड़ी रखना बाड़ी के बीच में चमच या डाडुला से गहरा करना और जमा या गला घी डालना। फिर घी के साथ सपोड़ा-सपोड़ी।
गढ़वाल की बाड़ी और रवांई की बाड़ी में मामूली फर्क है, रवांई में बनाते समय हल्का नमक का प्रयोग होता है, और मीठा, चीनी या गुड़ थाली में परोसा जाता है कि जितनी जरुरत हो उतना लो। #रवांई में नमकीन बाड़ी के प्रयोग की धारणा है कि मीठे से ज्यादा नमक से बाड़ी तागतवर होता है, ऐसा हमने भी महसूस किया।
बाड़ी का औषधीय उपयोग में प्रसूता व घायल के लिए बहुत उपयोगी माना जाता है।
अब संस्मरण के मूल विषय पर। कि चाय पाणी तो हुआ अनजान आगंतुककों के लिए चटपट अति विशिष्ट भोजन बाड़ी भी खिलाया। रवांईं रामासिरांई गुन्दियाट गाँव में आना ड्यूटी का उपक्रम था, बतौर एन सी सी प्रशिक्षक अटल उत्कृष्ट राजकीय इंटर कॉलेज गुन्दियाट गाँव में एक हफ्ते का प्रशिक्षण कार्यक्रम था। रहने खाने की व्यवस्था विद्यालय की और से की गई थी, वैसे भी ग्रामिण क्षेत्रों में खाने व रहने के ठौर की चिंता नहीं होती है।
सुबह पीटी के तहत गाँव के मध्य से निकल रहे थे, माधव बिजल्वाण सुपुत्र श्री द्वारिका प्रसाद बिजल्वाण जी अपने चौक से आवाज़ देते हैं सर जय हिन्द NCC से हो?
जी हाँ, जय हिन्द, खूब छन, घर में सब कुशल मंगल ?
जी सर सब कुशल, आओ चाय पानी पी जाओ।
बेटा अभी नहीं जरा घूम कर आते हैं।
जी सर वापसी में पक्का चाय नाश्ता करके जाना हम इंतजार करेंगे नहीं तो !!!
अरे पक्का यार।
अनजानो के लिए इतनी आत्मीयता हमारे लोक में ही मिलती है, चाहे रवांई हो या उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी क्षेत्र।
घंटा डेड घंटे में वापस आये, मन में नहीं था कि माधव के घर चाय पीनी है। सामान्य औपचारिकता समझ ली थी। पर जब माधव के घर के सामने से गुजर रहे थे तो फिर आवाज़ आयी, सर आ गए ? आओ, आओ हम #जाग्याँ
अब तो जाना ही पड़ा। माधव के घर पर बैठे थे ही थे कि बेटी (माधव की दीदी) पहले पानी फिर चाय ले आयी। सरपट माँ और दादी भी चाय में शामिल हो असल कुशल और छुवीं-बत्त का हिस्सा बन गई। परिचय हेतु बेसिक औपचारिकताएं कि कहाँ से हो? इधर कैसे, कैसे लग रहा है उगैरा उगैरा। बातचीत में पहचान व अपनेपन का सुख दुःख लगने लगा, छुवीं-बत्त में गाँव के एक दो मर्द माणिक भी बैठ गए। मैं ठेरा मातृभाषा प्रेमी, रवांई तो नहीं बोल पा रहा था लेकिन ग़ढ़वाळि व कहीं कहीं पर हिंदी में अपनी तरफ की छुवीं बत्त व संप्रेशण करने लगा। एक आद शब्द छोड़ रवांई अच्छी समझ रहा था। साथी मोहन मन रखने के लिए हुंगरा दे रहा था, रवांईं समझना मुझे इसलिए थोड़ा आसान हो रहा था कि भैजी #महावीर_रवांल्टा जी व अन्य रवांल्टी साहित्यकारों को पढता रहता हूँ।
शारदा काकी (माधव की दादी) कब उठी पता नहीं चला और आधे घंटे में माधव कहता है सर चलो नाश्ता तैयार हो गया। अरे नाश्ता नहीं जी, हमारा नाश्ता बना है। तभी माधव की ब्वे अंदर से आती है, #का_छुवीं_लानी, #कुखि_नि_नौण, पैलि नाश्ता करो। संकोच हो रहा था कि "मान ना मान मैं तेरा मेहमान" माधव हाथ पकड़ कर कीचन में ले गया, बैठने के लिए दरी के ऊपर चौंकले पहले से रखे हुए थे।
काकी चुल्ले के साथ बाड़ी की कड़ाई लिए बैठी थी, बबा आवा बैठा।
काकी (अपनी उम्र के हिसाब से माधव की दादी के लिए मेरा रिश्ता काकी ही बनता था ) यति जल्दी हमूतैं बाड़ी किलै बणायी ?
बबा तुमू मेरा मेमान, मेमान भगवान को रूप रौं, तुमुले नि बड़ौण त #कोयलै बड़ौण।
औ ?? यु ही चरित्र हमारा विशुद्ध लोकै पछयाण छ।
ठिक काकी द्यावा, आज तुमारा हाथक खौला।
काकी ने थाली में बाड़ी परोसी, करछी से बीच में गाढ्ढा किया, दो बड़े चम्मच घी डाला और मुट्ठी भर चीनी थाली के किनारे अलग रखी। मैं और मोहन ( मेरा साथी) ऊहापोह में कि चीनी अलग क्यों, मोहन मेरि तरफ देख रहा था, और माधव अर बौ (माधव की ब्वे) हम दोनों को। मैंने स्थिति पर कंट्रोल करने के लिए, आहा बड्या बोल कर सीधे बाड़ी के कोर पर एकाग्रता रखी। पहला कोर लिया ही था कि समझ में आया चीनी इस लिए अलग सा दिया गया, क्योंकि रवांई में बाड़ी हल्के नमक के साथ बनती है और हमारे यहाँ पूरा मीठे के साथ, हल्का नमकीन, चीनी और घी के साथ और भी अच्छा सवादी (स्वादिष्ट) था। समझ आया कि यहाँ की लोक परम्परा में नमक के साथ ही बाड़ी बनती है। चीनी व घी के साथ मिलकर खूब सपोड़ा फिर छुवीं बातों में अपने यहाँ के मीठे कल्यौ यानि बाड़ी का जिकर किया। शारधा काकी (दादी) बोली, बबा मिठाक साथ बाड़ि मरमरौ कम हौं, अर नूणक साथ खूब मरमरौ रौ, स्वीलड़ू मा बाड़ि बेटमास ले बड्या रौ, बबा स्वीलड़ा मा हम य बाड़ि छक्की खाऊँ तब्बी त यति मरमरा रौ।
हम दोनों के साथ माधव भी खा रहा था, छुवीं बत्त के बीच काकी परोसती रही हम खाते रहे। माधव हिंदी संस्कृति से ग्रेजुएशन कर रहा है, मिलनसार युवा है । बल "जन मयेड़ी तनि जयेड़ी"। दादी, माँ बाप पूरा परिवार मिलनसार एवं अतिथि देवो भव:, सेवा भाव वाले हों तो बच्चों पर संस्कार तो आना ही ठैरा। अतिथि भोजन के बाद काकी से साथ खूब छुवीं बत्त हुई। इस दौरान गाँव में जब किसी से भी औपचारिक बातचीत करो तो आवाभगत के लिए अड़ जाते हैं कि चलो घर में, पर ऐसे जाना जरा संकोच होता ही है।
जहाँ आम शहरी वातावरण में अनजान आगंतुक से दो शब्द सलीके के नहीं बोले जाते हैं व शक की निगाह से देखा जाता है, कौन है? क्यों घूम रहा है? आदि तीखे सवालों से घेरा जाता है वहीं अपने लोक में अनजान आगंतुकों को अथिति रूप में पूजने में संकोच नहीं करते। पूछा जाता है कखा होला, कख होणी दौड़? आवा चा-पाणि पी जावा, जिट घड़ी थौक टेका। सेवाभाव सर्वत्र विराजता है । इसी लिए हमारा लोक साधारणता, सीधेपन व ईमानदारी के लिए विशिष्ट माना जाता है।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

विकास होगा तो



विकास होगा तो

सुनिश्चित हत्यायें होंगी
किसी पहाड़ की, पेड़ पदपों व
इन पर आश्रित जंतुओं की
साथ में पूरे पारिस्थिकीय तंत्र की।

विकास होगा तो
संयम, धैर्य, सहनशीलता
बहुत अच्छी हालात से मरेंगे, और
द्रुतमार्ग पर द्रुत गति से भागेगा
दम्भ, औंछापन व हवाई प्रतिष्ठा।


विकास होगा तो
रुग्ण होती जाएगी
पारिवारिक समरसता
अपनापन, पारिवारिक व सामाजिक मूल्य
और, स्वस्थ-मस्त अट्टाहास करेगा
एकला-अकेला, नैराश्य एकाकीपन।

विकास होगा तो
निर्ममता से कुचली जाएगी
रीति-रीवाज, संस्कृति
खुशियों के नाम पर नाचेगी
वेहुदी नंगी उन्मुक्तता।

विकास होगा तो
वह सब अप्रत्याशित होगा,
कृत्रिम बुद्धिमत्ता आ गई
कृत्रिम आदमी आ गया
अब कृत्रिम जीवन भी आएगा
यकीनन आएगा।

@ बलबीर राणा 'अडिग'
17 Nov, 25

शनिवार, 8 नवंबर 2025

चल सको तो चलो



घुम्मकड़ के साथ चल सको तो चलो,
समय की साधुगिरी निभा सको तो चलो।

जुबानों के कांटे-कंकड़ कहाँ चुप रहने वाले
इनकी चुभती कटारी सह सको तो चलो।

भीड़ इतनी कि पाँव खिसकेगा नहीं इंच भी,
सेंटीमीटरों में इंतजार कर सको तो चलो।
 
ज़माने की तेज रफ़्तार, ऊँची उड़ान के बीच,
उकाळ-उंदार पर पैदल चल सको तो चलो।

अपने वास्ते कोई क्यों बदलने चला वेवजह,
जरुरत की जोरू को बदल सको तो चलो।
 
पहले अपनी वाणी, नहीं तो लाटे की सही
अडिग इशारों की भाषा समझ सको तो चलो।

उकाळ-उंदार - चढ़ाई उतराई
लाटा - गूंगा
8 Nov 2025
@ बलबीर राणा 'अडिग' 

शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

फ्यूंली अब गुलमोहर बन गई है

 



फ्यूंली ! हाँ फ्यूंली रखा था उस अबोध जीव का नाम सच्चू ने। बसरते सच्चू उसे फ्योंली उच्चारित करता था। फ्यूंली नाम उसके लिए इस लिए भी प्रिय रहा होगा कि उसका बचपना गांव के भीटे-पाखों व पुंगड़ों की मुडेर पर झक्कास हंसती पीत फ्यूंली के फूलों के साथ बीता था। पहाड़ में फ्यूंली के फूलों का उगना प्रकृति की तरफ से खुशहाली का रैबार होता है। यानि ऋतुराज बसंत का आगमन। हमारे उत्तराखण्ड में फ्यूंली प्रेम और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। हमारे पहाड़ का कोई भी प्रकृति चितेरा कवि, गीतकार, सहित्यकार ऐसा नहीं होगा जिसने फ्यूंली को अपने कलम कंठ में ना रचा हो।

      चलो आज उस प्रेम पुष्प फ्यूंली पर लिखने के लिए नहीं बैठा हूं बल्कि अपने बेटे सच्चू (सचिन राणा) के जीवन के अभिन्न हिस्सा रहे फ्यूंली के प्रेम व खुद (याद) में बैठा हूँ। हम उसे बिल्ली नहीं कहते थे, बिल्ली कहने पर सच्चू नराज होता है। हाँ उसकी मम्मी कॉल करते समय पहले पहल जरूर यही पूछती थी कि म्या सच्चू को च रे तेरि बिराळी, हिन्दी के बिल्ली से हमारी गढ़वाली बिराळी और प्यारी होती है सायद इस लिए बिराळी बोलने पर सच्चू नाराज नहीं होता है। पिछले दस महिने से फ्यूंली हमारे परिवार की अहम सदस्य के रूप में थी, थी इस लिए कि अब वह इस भूलोक को उलविदा कर गई है। उसे जिन्दा रखने हेतु सचिन के तमाम प्रारब्ध धरे के धरे रहे। चौरासी लाख योनियूं में फ्यूंली बिराळी की बिल्ली योनि की यात्रा दस महिना और कुछ दिन की ही रही। अश्रुपूर्ण उलविदा प्यारी फ्यूंली। 

बसरते फ्यूंली सच्चू के दिल्ली निवास पर ही रहती थी, सच्चू उसे घर पर 2025 होली के समय एक हप्ता के लिए लाया था। तब सच्चू की मम्मी ने कहा था ले जा बा इसे जल्दी अपने दिल्ली, नहीं तो मैंने इसे तेरे पास नहीं भेजना, सायद वह भी उस प्यारी बाल नटखट के मूक मोह में मोहे जा रही होगी। फ्यूंली के दिल्ली होने से भी वह पूरे परिवार के साथ रोज रहती थी। रोजाना उसका नटखटापन, शैतानियां, सच्चू के कंधे पर झूलना, लेप्टॉप पर बैठना, उसके साथ घुंडी-मुंडी कठ्ठा करके सोना उगैरा-उगैरा विडियो कॉल में दिख जाता था। जब भी सचिन से बात होती बिना फ्यूंली को देखे हमें अधूरा लगता विशेष जब वह दिल्ली से बाहर होता। भावनाओं का अतिरेक समझो या अतिरेक जीव प्रेम, फ्यूंली के जाने पर सचिन को तो महा अधूरापन महसूस हो ही रहा होगा लेकिन हमें भी उतना ही अधूरापन महसूस हो रहा है। अपना सगा हो, कोई जीव हो या जीवन की अन्य चीज वस्तु जब जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है तो उसका ना रहना अधूरापन तो छोड़ता ही है जब तक समय अपनी भरपाई ना करे। समय से बलवान कोई नहीं है वह खाली करने के साथ भरपाई भी करता है। यही शाश्वत है।  

उस प्यारी फ्यूंली से परिचय ऐसा था कि 2024 दिसम्बर के पहलेे सप्ताह अंत में दिल्ली गोबिन्दपुरी की गली नम्बर 5 सचिन के फ्लेट के ग्राउन्ड फ्लोर के दरवाजे पर उसे वह अकेले रोती हुई मिली वो भी मात्र हप्ते दस दिन की अबोध, आँख ही खुली थी कि अपनी अपनी माँ से बिछुड़ गई थी। सच्चू उसे उठाकर अपने फ्लेट पर ले आया। तुरन्त उसे कैट डॉक्टर के पास ले गया, उसका ट्रीटमेन्ट करवाया, उसके लिए जरूरी पोषक व देखभाल की जानकरी ली। तुरन्त ही नामकरण भी कर दिया ‘फ्यूंली’। शाम को अपनी मम्मी को कॉल पर बताता है कि मैं फ्यूंली को ले आया, मम्मी उधेड़बुन में कि कैसी फ्यूंली रे ? क्योंकि हमारे उत्तराखण्ड में बेटियों का नाम भी फ्यूंली रखा जाता था। बेटा जवान है कुंवारा है मम्मी का ध्यान फ्यूंली फूल पर नहीं गया क्योंकि दिल्ली में फ्यूंली फूल की कोई गुंजाइस नहीं थी इस लिए उसे और ही शक हुआ। तभी उसने फ्यूंली को दिखाया ये है मेरि फ्यूंली। माँ बोली अरे क्या यार ! कौ बे ल्या तै चुतर्योल बिरोळौ मुळया। यह भी संजोग ही था कि सचिन कहता पापा इसका जन्म मेरे जन्म दिन के करीब यानि नवम्बर 28 के आस पास का ही है।

रचनात्मक व्यक्तित्व संवेदनशील होता ही है, सचिन राणा एक कवि, साहित्यकार, फिल्म मेकर है इस लिए उसका संवेदनशील जीव प्रेम अपेक्षित है। तब उसकी मम्मी बोल रही थी, अरे ना पाल बा उसे, छोड़ दे उसकी माँ के पास कल तूने परेशान होना है। जीव पालने के बाद उससे बहुत माया हो जाती है। पर सचिन के जिगर ने उसे हाथों-हाथ स्वीकार कर लिया था तो कैसे छोड़ता। बगत के आगे बढ़ने के साथ सचिन के दिल्ली वाले अकेले जीवन में एक सदस्य का पूर्ण प्रभुत्व जमने लगा। उसकी कमाई का एक चौथाई हिस्सा फ्यूंली का होने लगा। उसकी डाइट, पहनावा, खेलने की वस्तुएं, वक्त-वक्त पर वेक्सीनेशन, दवाई कियर वगैरा-वगैरा। मम्मी कहती अरे सच्चू तेरी फ्यूंली ने भी अपने पूर्व जन्म में अच्छे दान किए होंगे, कहाँ रहना था उसने शहरों की गलियों में तमाम जूठन पर और अब कहाँ एक अति प्रेमी मालिक के साथ राज कर रही है।

जैसा कि उपरोक्त उल्लेखित है कि फ्यूंली हमारे उत्तराखण्ड में प्रेम और खुशहाली का द्योतक माना जाता है। हमारा फूलदेई फूल सग्रान्द त्यौहार विश्व का अकेला त्यौहार है जिसमें बच्चे घर-घर फूल डालकर उस घर की खुशहाली की कामना करते हैं, खुशहाली बांटते हैं। यह त्यौहार बिना फ्यूंली के फूल के अधूरा माना जाता है। तो सचिन की फ्यूंली भी उसके लिए ऐसे ही चरिर्थात हो रही थी, फ्यूंली के आने से उसका जीवन और भी व्यवस्थित होने लगा। समय पर काम करना, अतरिक्त जिम्मेवारी का अहसास, जब भी आउट ऑफ स्टेशन काम के सिलसिले में होता दोस्तों के पास फ्यूंली की देखभाल की हिदायतें। और सचिन का मानना है कि पा जब से फ्यूंली मेरे जीवन में आई है मेरे काम में श्रीबृद्धी हो रही है। प्रेम के साथ खुशहाली। फिर मन में शंतोष होता कि प्रेरणा के लिए यह भी सही है।   

फ्यूंली को अच्छी परवरिश मिली और वह कम उमर में ही जवान होने लगी। हीट ने जब परेशान किया तो कुछ महिने पहले ही उसका ऑर्वशन भी करवाया। ऑर्वशन से वह कुछ-कुछ असहज और उदास रहने लगी। दोस्तों ने कहा यार ये स्ट्रीट नशल है और ज्यादा घूमने खेलने वाली होती हैं इसके साथ एक दोस्त हो जाय तो यह खुश रहने लग जाएगी। और फिर सच्चू के घर पर एक और बिराळी जूजू का आगमन हो गया। अरे क्यों पाल रहा है इतने बिल्लीयों को ? पा फ्यूंली उदास रहने लगी थी उसके साथ खेलने वाला चाहिए था। चलो बा तेरी खुशी। अब शादी का समय हो रहा है जल्दी घर बसा फिर बहुत प्रेम व जिम्मेदारी मिल जाएगी। हाँ वो तो हो जाएगा पा, पहले फ्यूंली तो संभल जाय।

 फ्यूंली अच्छे से संभली भी और शांत जुजू के साथ मस्त रहने लगी। फिर अपनी नटखट पर आ ही रही थी कि समय किसी और ही तरफ इंगित करने लगा। जाने के लिए बहाना चाहिए होता है। फ्यूंली उल्टी करने लगी कारण माना जाने लगा उसने घर पर कहीं गिरा हुआ सरसों का तेल चाट लिया। डॉक्ट को दिखाया, दवाई चली पर उसकी हालात ठीक नहीं हो रही थी। सचिन फिर उसे कैट स्पेलिस्ट के पास ले गए तो जाँच में पता चला कि वह बिल्लीयों के जानलेवा वाइरस फेलिन पर्वो से इफेक्ट हो गई है तुरत-फुरत सचिन ने उसे आईसीयू में रखवा दिया, आशा थी कि स्पेलिस्ट डॉक्टर के पास ठीक हो जाएगी पर 4 अक्टूवर 2025 आईसीयू में वह तीसरी रात काटने से पहले अपने चोले को छोड़ गई। दोस्तों के साथ वह रोता हुआ हॉस्पिटल गया और उसे यमुना तीर कालिन्दी कुंज में ससम्मान समाधिस्त किया। साथ ही उसकी समाधी पर गुलमोहर का पौधा रोप के आ गया ताकि जब वह पौधा गुलमोहर का विशाल पेड़ बने तो उसे अपनी फ्यूंली हमेशा जिन्दी मिले।

सचिन अपने दादा पर ज्यादा गया है, जीव प्रेम की ऐसी ही कहानी मेरे पिताजी की भी रही, ठेठ पहाड़ी परिवेस में पिताजी के जीवन का अभिन्न हिस्सा झंवर्या बैल था जिसकी समाधी पर पिताजी ने बुराँस का पौधा रोपा था, उस जीव प्रेम कहानी को मैने ‘बंसत के बाद का बुराँस के फूल’ शिर्षक से हिन्दी व गढ़वाली में उधृत किया है।

जब कोई प्रिय चला जाता है तो छूट जाती है उसका अप्रीतम अतीत जो भूलने से नहीे भूलता। सच्चू फ्यूंली को  बाबू यानि अपना बच्चा कह कर ही संबोधित करता था। नहाने जाता तो फ्यूंली बाथरूम के दरवाजे पर बैठी रहती, बर्तन धोता तो स्लेब पर बैठे उसके हाथों को एकटक देखती रहती, जब कभी वह थकान या उदासी से सुस्त रहता तो पास में आकर बैठ जाती और शरारत करने लग जाती, घर का ताला खोलने की आवाज सुन कर दरवाजे पर उसका स्वागत करती और पाँवों मे लिपटते हुए प्रेम जताती, फिर छोड़ती नहीं। कंन्धे व सर पर बैठना, काम करते हुए लेप्टॉप के कीबोर्ड पर जम जाना, गोदी में ऊंघना, रात को घुंडी-मुंडी (हाथ-पाँव व सर) इकठ्ठा कर बगल में सौ जाना ये सब अप्रीतम प्रेम की यादें अब अतीत बन गई हैं जिन्हें सचिन नहीं भूलेगा पर हाँ प्रेम की व्यवहारिक परिभाषा से वह जरूर रू-व-रू हुआ होगा। इतना प्रेम कि सच्चू ने फ्यूंली इंस्टाग्राम एकाउन्ट भी बनाया हुआ है। आशा है फ्यूंली का प्रेम मेरे सच्चू को जीवन को और प्रेममयी बनाने के लिए प्रेरित करता रहेगा उसके कर्म क्षेत्र व कुटुम्ब के लिए।