झूट का आवरण
क्या रह गया बाकि
सब तो तिलिस्मी दे कर आई हो
न रखी
लाज किसी की
सब निर्लज कर आई हो
इस
तरह फिर से दस्तक
मेरे दर पर देनी आई हो
में भूल गया था उन लम्हों को
फिर क्यों
आग में घी डालने आई हो
अरे मेने क्या बिगाड़ा था तेरा
जो इनता बेगैरत किया मुझे
न किया मान किसी का मैंने
ना रखा सम्मान
न रखा
ख्याल ऊँचे
न किया निचे का भेद
सबको जाल में फँसाती आई हो
किसी को न छोड़ा
सबको बनाती आई हो
फिर आज वही रेत की राह
मुझे दिखाने आई हो
थक गया में इन राहों पर
चलते चलते
अब और नहीं चला जाता
अब कुछ सुकून से रहने दो
आज तक काट रहा था
अब जीने दो
नहीं पहना जाता तेरा ये आवरण
अब खुला ही
रहने दो
तू झूटी
है फरेबी है
फरेबी ही रहेगी
कब तक रखेगी
परदे में
एक दिन बेपर्दा होना ही है
आज नहीं कल
किवाड़ खुलने ही हैं
जा भाग चल दुबारा न आना
तेरे
आवरण से
सच्चे जीवन का तन नहीं ढकता
…………….रचना
बलबीर रना "भैजी"
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