सुनशान स्याह रात]
बैठा वह प्रहरी ।
अन्धयारे
में आँख विछाये]
उस अन्धकार को ढूंढता
जो माँ के अस्तित्व को
ध्वस्त करने को आतुर।
यकायक सचेत हाsती निगाहें
पलकें बिचरण करती]
खोजती हर उस शाये और आहट को
जो कहर ना बन जाये मातृभूमी पर।
उसके दर्द की कोई सीमा नहीं]
सीमा हैS जमीन की
मानव अंहम की
खोखले जमीर की
दो मुल्कों के रंजिस की
उस जमीं पर परिन्दा भी घरोंदा बनाने में डरता]
उसी जमीं पर बसेरा उसका।
जीवन की हज़ार शिकायतें के बाबजूद भी
सब्र और हिम्मत का पैमाना उसका]
अन्धेरे में और भी प्रगाड हो जाता
जब आवाज देती सुनशान हवायें।
उसकी इस अडिग तन्द्रा का मोल
ऊसर होती उसकी जीजिविषाA
बलबीर राणा
"भैजी"
२५ अगस्त २०१२
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