रविवार, 26 मई 2013

आंगन तेरी दिशा या दशा



कभी इस आंगन में
किलकारियां गुंजती थी।

लडखडाते ठुमकों के पीछे
माँ भागती थी।

तोतली बोली के साथ
सुर अपने मिलाती थी।

दादी अपनी पीठ पर बांध
लोरियों सुनाकर सुलाती थी।

आज, तरस रहा है आंगन।
झडू, भांग
उगा रहा है आंगन।

अपनो के वियोग में
आंसू, बहा रहा है आंगन।

पलायन की बेदना से
तप्त, हो रहा है आंगन।

अपनी इस, दिशा या दशा को देख,
शुन्य को, निहार रहा है आंगन।
मुक खडा है आंगन।

(झडू = बंजर में उगने वाली घास)

रचना - बलबीर राणा भैजी
27 सितम्बर 2012

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